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प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण

प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण
We declare that Section 377 IPC, insofar it criminalises consensual sexual acts of adults in private, is violative of Articles 21, 14 and 15 of the Constitution. The provisions of Section 377 IPC will continue to govern non-consensual penile non-vaginal sex and penile non-vaginal sex involving minors. By ‘adult’ we mean everyone who is 18 years of age and above. A person below 18 would be presumed not to be able to consent to a sexual act. This clarification will hold till, of course, Parliament chooses to amend the law to effectuate the recommendation of the Law Commission of India in its 172nd Report which we believe removes a great deal of confusion.
Secondly, we clarify that our judgment will not result in the re-opening of criminal cases involving Section 377 IPC that have already attained finality. We allow the writ petition in the above terms.

मामले, जहां आरोप पत्र दायर होने के बाद भी अग्रिम जमानत दी जा सकती हैः इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिशा निर्देश जारी किए

Allahabad High Court expunges adverse remarks against Judicial Officer

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सोमवार को को कहा कि एक प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण अभियुक्त को केवल इस आधार पर अग्रिम जमानत न देना कि जांच अधिकारी ने आरोप-पत्र दायर कर दिया है या न्यायालय ने उसके खिलाफ, धारा 204 सीआरपीसी के तहत संज्ञान लिया है, बिना उसकी प्रथम दृष्टया प्राम‌णिकता पर विचार किए, "न्याय के बड़े हित में नहीं होगा।"

जस्टिस सिद्धार्थ की एकल पीठ ने उक्त अवलोकन करते हुए विभिन्न "उपयुक्त मामलों" को प्रतिपादित किया, जहां चार्जशीट और न्यायालय के संज्ञान के बाद भी, गिरफ्तारी की आशंका के मद्देनजर अभियुक्त को अग्रिम जमानत दी जा सकती है या नहीं दी जा सकती है।

पीठ ने उक्त अवलोकन एक अभ‌ियुक्त शिवम की अग्र‌िम याचिका पर सुनवाई करते हुए किया। शिवम के खिलाफ धारा 323, 504, 506 आईपीसी, साथ में पढ़ें, धारा 3 (1)(r)(s), अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज किया गया था।

उक्त प्राथमिकी एक पत्रकार ने दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि आरोपी ने अन्य सह-आरोपियों के साथ मिलकर उसे गाली दी और उसे "डेढ़ चमार" कहा। उसने उसे मां और बहन के नाम पर गाली भी दी। यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने उसे धमकी भी दी कि अगर वह पत्रकारिता में लिप्त रहेगा, तो उसे मार दिया जाएगा।

आवेदक का कहना था कि उसके खिलाफ सबूत जुटाए बिना आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया था। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि न्यायालय ने 20 नवंबर 2020 को भी संज्ञान लिया था।

यह भी प्रस्तुत किया गया था कि सार्वजनिक रूप से सूचनादाता को डराने या अपमान करने बारे में उसकी कोई भूमिका नहीं तय की गई थी और इसलिए, आवेदक पर एससी/एसटी एक्‍ट की धारा 3 (1) (r)(s) के तहत दर्ज अपराध बिना किसी आधार के है।

कोर्ट ने चार्जशीट की जांच और कानूनी प्रावधानों पर विचार करते हुए कहा कि "उपयुक्त मामले", जिसमें अग्रिम जमानत दी जा सकती है, वे मामले हैं, "जहां जांच अधिकारी की ओर से प्रस्तुत चार्जशीट और कोर्ट द्वारा धारा 204 सीआरपीसी के तहत संज्ञान लेने के बाद जारी की गई प्रक्रिया, धारा 482 सीआरपीसी के तहत हाईकोर्ट द्वारा अधिकार क्षेत्र के अभ्यास के जर‌िए खारिज की जा सकती है।"

वो उपयुक्त मामले, जहां अदालत द्वारा लेने और चार्जशीट दायर होने के बाद अग्र‌िम जमानत दी जा सकती है-

1. जहां जांच अधिकारी ने आरोप पत्र प्रस्तुत किया है, लेकिन यह तर्क दिया जाता है कि दर्ज गवाहों के बयान सत्य नहीं हैं। शिकायत के मामले के समर्थन में जांच अधिकारी द्वारा दर्ज किए गए गवाहों के बयानों की सत्यता या अन्यथा, ट्रायल के दौरान परीक्षण किया जाना है और अग्रिम जमानत आवेदन के विचार के स्तर पर नहीं।

2. जहां एफआईआर/ शिकायत में कथित अपराधों का खुलासा होता है और जांच अधिकारी ने ऐसी सामग्री जुटाई है, जो बिना किसी विरोधाभास के, आरोपी पक्ष द्वारा दिए गए बयानों/ सामग्री पर विचार करने के बाद भी समर्थन करती है।

3. जहां दोनों पक्षों द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ क्रॉस केस दर्ज किए गए हों और आरोपित अपराध पूरी तरह से साबित हो और चार्जशीट पेश की गई हो। चूंकि घटना, जैसाकि आरोप है, पाया गया है कि हुई है और दोनों पक्ष इस तरह की घटना को स्वीकार करते हैं, इसलिए, इस घटना के बारे में कोई संदेह नहीं है।

4. जहां अभियोजन स्वीकृति के लिए कानूनी औपचारिकताओं के अनुपालन के बाद चार्जशीट प्रस्तुत की गई है और सक्षम अधिकारी द्वारा एफआईआर / शिकायत दर्ज की गई है और समर्थ में साक्ष्य है।

5. जहां प्रतिवाद का आरोप लगाया गया है कि पहले की घटना विवाद में घटी घटना से बहुत पहले हुई थी और दूसरी घटना के साथ समय के संदर्भ में दूसरी घटना की निकटता नहीं है।

6. जहां एक नागरिक उपाय मौजूद है, लेकिन आरोपों के एक ही सेट पर, सिविल गलती और आपराधिक गलती दोनों किए गए हैं और केवल आपराधिक गलती के संबंध में चार्जशीट प्रस्तुत की गई है।

7. जहां जांच अधिकारी ने जांच के दौरान अपने बयान को दर्ज करने के लिए आरोपी से संपर्क किया है और उसने अपने बचाव में जांच अधिकारी को बयान देने से इनकार कर दिया है और उसके खिलाफ आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया है।

8. जहां अभियुक्त ने न्यायालय के समक्ष आरोप-पत्र को असफल रूप से चुनौती दी है या अभियुक्त के विरुद्ध प्रस्तुत आरोप-पत्र के संबंध में इस न्यायालय के समक्ष कोई कार्यवाही लंबित है।

9. जहां कथित रूप से अपराध गंभीर है, अभियुक्त आपराधिक प्रवृत्ति का है, फरार होने की प्रवृत्ति है, उसे पहले दी गई जमानत की शर्तों का उल्लंघन किया है, आदि।

10. जहां पुलिस रिपोर्ट पर या किसी शिकायत में न्यायालय द्वारा अपराध का संज्ञान लेने के बाद अभियुक्त अदालत के सामने पेश होने से बच रहा है और उसके खिलाफ बार-बार प्रक्रियाएं जारी की गई हैं और अभियुक्तों द्वारा कोर्ट के सामने उसकी गैर मौजूदगी का कोई वैध स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है।

जांच और चार्जशीट क्रिमिनल ट्रायल की उत्पत्ति का निर्माण करती हे

न्यायालय यह देखने के लिए भी आगे बढ़ा कि जांच और चार्जशीट एक आपराधिक मुकदमे की उत्पत्ति को आधार बनाते हैं। न्यायालय ने ऐसा माना कि:

"जांच में वे सभी प्रक्रियाएं शामिल हैं जो सबूत जुटाने के लिए पुलिस अधिकारी द्वारा कोड के तहत की जाती हैं। एफआईआर दर्ज करने पर पुलिस मामले की तथ्यों के उलट होने पर जांच की लाइन तय करती है कि क्या परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं या चश्मदीद गवाह।

परिस्‍थ‌ितिजन्य साक्ष्य वह चीज प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण है जो परिस्थितियों की एक श्रृंखला है, जो अपराध को जन्म देती है जैसे कि पिछले दुश्मनी, धमकी आदि । यह मूल रूप से अपराध के लिए विभिन्न परिस्थितियों का जुड़ाव है। दूसरी ओर, चश्मदीद गवाह वे हैं जिनके सामने घटना हुई है।"

यह आरोप लगाते हुए कि एक आरोपपत्र किसी अपराध के आरोप को साबित करने के लिए जांच या कानून प्रवर्तन एजेंसी द्वारा तैयार की गई अंतिम रिपोर्ट है, न्यायालय ने देखा कि ऐसी रिपोर्ट सभी कठोर रिकॉर्ड को दर्ज करती है. । आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 173, पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट प्रदान करती है।"

इस विषय पर कई निर्णयों पर भरोसा करते हुए, न्यायालय ने कहा, "माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में माना है कि निष्पक्ष जांच, आरोप-पत्र दाखिल करने से पहले, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है। इसलिए इसे निष्पक्ष, पारदर्शी और विवेकपूर्ण होना चाहिए। एक दागी और पक्षपाती जांच के बाद एक चार्जशीट दायर की जाती है जो बिना किसी जांच के आधार पर दायर की जाती है और इसलिए, इस तरह की जांच के बाद दायर चार्जशीट कानूनी और कानून के अनुसार नहीं हो सकती है। "

निजता में वयस्कों के सहमत यौनाचरण को दंड की श्रेणी से हटाने पर इतनी चिंता क्यों?

इधर यहाँ वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार पर श्रंखला चल रही है। इस बीच संजय बैंगाणी जी के जोग लिखी पर का एक आलेख भारत, संस्कृति और समलैंगिकता पढ़ने को मिला। मैं ने टिप्पणी कर उन के बहाव की विपरीत दिशा में तैरने के साहस को सलाम करने के साथ उन के विचार से सहमति जाहिर की और धारा 377 को दंड संहिता से हटाए जाने के खतरों के बारे में भी बताया। इस विषय पर उन से कुछ विमर्श भी हुआ। इस बीच कल सुबह दिल्ली उच्च न्यायालय का निर्णय आ गया। इस निर्णय ने धारा 377 के मामले में जो धुंध थी उसे छाँट दिया है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को हटाने के मामले में पिछले दिनों विधि मंत्रालय से खबर आई तो अचानक मीडिया और प्रेस को चर्चा के लिए फिर से यह विषय मिल गया था। इस पर राजनीति भी आरंभ हो गई थी। पर कुछ विषय हैं जिन पर राजनैतिक और वैयक्तिक समझ के दुराग्रहों को छोड़ कर विचार करना सदैव बेहतर होता है। यह भी एक ऐसा ही विषय था जिस पर इसी तरह विचार कर सकते थे। अब दिल्ली उच्चन्यायालय के निर्णय की प्रतिक्रिया में जहाँ कुछ के दिल बल्लियों उछल रहे हैं वहीं विपरीत प्रतिक्रियाएँ भी कम नहीं हैं। किसी को समाज की चिन्ता सता रही है तो कुछ इसे सुधार का कदम भी मान कर चल रहे हैं। आलोचक इसे समलैंगिक स्वतंत्रता के रूप में देख हैं और माध्यमों ने भी इसे इसी रूप में प्रस्तुत किया है। धार्मिक नेता इसे अपना अपमान समझ बैठे हैं इस निर्णय को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की घोषणा कर बैठे हैं। वहीं कुछ राजनेताओं को इस में कुछ वोट कबाड़ने की जुगत भी दिखाई देती है। लेकिन सोच सही नहीं है कि यह निर्णय समलैंगिक स्वतंत्रता प्रदान करता है।

समलैंगिकता पर विज्ञान ने शोध उपरांत जो मत रखे हैं उन में प्रधान मत है कि इस प्रवृत्ति का कारण किसी व्यक्ति की शारीरिक बनावट है, जिस का निर्धारण मनुष्य प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण के हाथ में नहीं है। इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगा पाना भी उस व्यक्ति के नियंत्रण में नहीं जिसे इस प्रवृत्ति के लिए दोषी मान लिया गया है। यह सही है कि मनुष्य की सामान्य प्रवृत्ति में यह एक विचलन है और यह जितना कम हो उतना ही अच्छा है। लेकिन इस का अर्थ यह तो नहीं कि किसी को जन्मजात अथवा इसी समाज द्वारा आरंभिक लालन-पालन के बीच दी गई शारीरिक विकृति की सजा दी जाए। ऐसा हो रहा था कि कुछ व्यक्तियों को उस दोष के लिए सजा दी जा रही थी जो उन का न हो कर प्रकृति का अथवा समाज का था।

दिल्ली उच्च-न्यायालय का निर्णय 105 पृष्ठों का है जिस में 26397 शब्द हैं। इसे पढ़ने में समय लगेगा। लेकिन न्यायालय ने तमाम संभावनाओं, सामाजिक परिस्थतियों, तथ्यों, विचारों और दुनिया भर के निर्णयों पर भरपूर विचार करने के उपरांत जो निर्णय दिया है, उस का अन्तिम चरण इस प्रकार है-

We declare that Section 377 IPC, insofar it criminalises consensual sexual acts of adults in private, is violative of Articles 21, 14 and 15 of the Constitution. The provisions of Section 377 IPC will continue to govern non-consensual penile non-vaginal sex and penile non-vaginal sex involving minors. By ‘adult’ we mean everyone who is 18 years of age and above. A person below 18 would be presumed not to be able to consent to a sexual act. This clarification will hold till, of course, प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण Parliament chooses to amend the law to effectuate the recommendation of the Law Commission of India in its 172nd Report which we believe removes a great deal of confusion.
Secondly, we clarify that our judgment will not result in the re-opening of criminal cases involving Section 377 IPC that have already attained finality. We allow the writ petition in the above terms.

न्यायालय ने धारा 377 में से केवल निजता में वयस्कों दारा सहमति से किए गए यौनाचरण को भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के कानून के समक्ष समता और संरक्षण के मूल अधिकार, अनुच्छेद 15 में लिंग के आधार पर विभेद के मूल अधिकार और अनुच्छेद 21 में प्रदत्त प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण के अधिकार के विरुद्ध मानते हुए इसे दंडनीय श्रेणी से बाहर किया है। मेरी समझ में इस से समाज को कोई हानि नहीं होने वाली है। इस से सरकार को धारा 377 भारतीय दंड संहिता को इस निर्णय के प्रकाश में संशोधित करने लिए एक दिशा मिली है। इस से धारा 377 में केवल यह अपवाद जोड़ना ही पर्याप्त होगा कि, “निजता में वयस्कों द्वारा सहमति से किया गया यौनाचरण इस धारा के अंतर्गत दंडनीय नहीं होगा”

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मानव जीवन के दिशा निर्देशों का कार्य उसके जीवन मूल्य करते हैं जीवन मूल्य वस्तुतः मनुष्य के जीवन के रडार है जीवन मूल्य वसुता मनुष्य का मूल्य निर्धारण करते हैं मनुष्य की जीवन पद्धति को देखकर यह अनुमान लगाया जाता है कि यह मनुष्य अपने व्यक्तित्व का निर्माण किन मूल्यों के आधार पर कर रहा है.

प्रत्येक मनुष्य अपना जीवन सुखी और आनंदमय बनाएं या प्रकृति का भी नियम है तथा मानव का जन्म जात वरदान भी है परंतु अनेकानेक व्यक्ति प्राकृतिक एवं परमात्मा के ईश्वरदान से वंचित दिखाई देते हैं इनके लिए जीवन एक गंभीर समस्या बन जाता है प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण इसका एक ही कारण रहा है उनके जीवन का रडार अथवा जीवन मूल्यों का निर्धारण एवं निर्देशन दोषपूर्ण रहता है वह व्यस्त थे ही कॉल कर एवं ईश्वर को दोष लगाते हैं.

जीवन जीने के लिए कर्म करना अनिवार्य है. कर्म करने के लिए व्यक्ति को हर पल और हर पल पर अपने मारकंडे धाम करना होता है इसके लिए व्यक्ति के मन में अंतःकरण में कतिपय मापदंडों का होना अनिवार्य है मापदंडों का निर्धारण विवेक आश्रित रहता है लोग किन कामों को उचित अच्छा तथा सत्य साबित समझते हैं और किन कामों को अनुचित बुरा असत्य साबित समझते हैं अपने मापदंडों के आधार पर ही हम जान सकते हैं हमारे लिए क्या मूल्यवान है और क्या मूल्य एवं महत्वहीन है प्रलोभन भाई आलस्य अथवा किसी कारणवश निर्धारित मूल्यों को छोड़ देने का अर्थ यह होता है कि हम दिग्भ्रमित हो जाते हैं और हमारा जीवन निर्देश से बन जाता है .

पुरुषार्थी लोग मूल्यों का निर्धारण स्वविवेक द्वारा करते हैं और उनके अनुसार जनता पूर्वक जरा करते हैं हो सकता है कि किसी व्यक्ति की विवेक वृद्धि पूर्णतया विकसित ना हो उसको आज स्वस्थ रहना चाहिए कि जीवन में प्रगति करने के साथ विवेक का विकास होना चलता है और तदनुसार जीवन का पथ प्रशस्त होता जाता है महात्मा गांधी सादृश्य महान व्यक्तित्व के धनी प्राया यह कह दिया करते थे कि मेरे सामने एक कदम अथवा एक सीढ़ी स्पष्ट है मूल्य के अनुसार आचरण करने वाला व्यक्ति विवेक के विकास के उच्च से उच्चतर स्तनों को स्पर्श करते हुए अपने निर्धारित मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक अग्रसर होता चला जाता है.

पुरुषार्थी नियम दुर्बल इच्छाशक्ति वाले जन अपने जीवन के मूल्यों का निर्धारण करते हुए संकोच करते हैं अन्य व्यक्तियों के मूल्यों को अपनाकर में मूल्य निर्धारण की समस्या से छुटकारा प्राप्त कर लेते हैं स्पष्ट है कि इन मूल्यों के प्रति ना तो इनकी आस्था होती है और ना ही इनके द्वारा निर्देशित दिशा का ज्ञान ही उनको होता है इनकी दशा उस परीक्षार्थी के समान बन जाती है जो परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए नकल के भरोसे रहता है जिसकी नकल की जाए यदि वह गलत हो तो यह गलत उपस्थित हो तो शादी का भविष्य एवं जाता है उसके स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है उनका जीवन एक ऐसी बुद्धि बन जाता है जाता है जिसको जिसको समझा ना किसी के बस की बात नहीं है उनके बस की बात नहीं है.

जो व्यक्ति अपने जीवन मूल्यों का निर्धारण नहीं करता है उसकी दशा उस घुड़सवार की भांति हो जाती है जिसने घोड़े की लगाम किसी अन्य व्यक्ति के हाथों में सौंप दी है गंतव्य की ओर ना जाने वाला व्यक्ति सफल एवं सुखी नहीं हो पाता है इस गतिविधि की तरह दी होती है कि वह व्यक्ति अपने दुखों एवं अपनी असफलताओं के लिए अन्य व्यक्तियों को उत्तरदाई मानता है मानो ऐसा करने से उसका दुख कुछ कम या हल्का हो जाता है ऐसे व्यक्ति भूल जाते हैं कि हमारे दुर्भाग्य का दायित्व किसी का हो परंतु हानियां बर्बादी हमारी होती है.

हमको जीवन में ऐसे अनेक व्यक्ति मिलते हैं जो अपने तर्कों द्वारा अनुशासनहीनता अनैतिक देशद्रोह भ्रष्टाचार अनाचार आदि को न्याय पूर्ण एवं उचित सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं जो व्यक्ति उनके वितरित मूल्यों संबंधित तर्कों द्वारा प्रभावित होकर अपने जीवन पथ पर चल पड़ता है वह यदि आना पीके क्षेत्र समस्या में उलझी जाए तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है ऐसे व्यक्ति तत्कालिक समस्याओं के समाधान के लिए चाहे जिस मार्ग पर चले आते हैं और मटका और संतोष एवं सफलता का जीवन जीने को विवश हो जाते हैं मूल्य हीनता के बियाबान में भरत ने वाले व्यक्ति की दशा बहुत कुछ कहानी के अफीम जी की तरह बन जाती है.

बचपन में माता-पिता मूल्यों का ज्ञान देते हैं उनके द्वारा निर्देशित मार्ग पर चलने में कल्याणम प्रवृत्ति की दिशा का निर्धारण भटकाव की संभावना नहीं होती है परंतु आगे चलकर अनेक वाला उन मूल्यों को अस्वीकार कर देते हैं उनके इस आचरण के मूल्य में प्राया दो कारण रहते हैं माता-पिता एवं गुरू जन के प्रति पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास ना होना तथा तार्किक बुद्धि का प्राधान्य वे यह कहने लगते हैं कि मूल परिवर्तित होते आते हुए आवश्यक नहीं है कि प्राचीन मूल्य सदैव बनी रहे फलता विश्वा विवेक अनुसार नवीन मूल्य निर्धारित करने के पूर्व ही माता-पिता पुस्तक ज्ञान द्वारा प्राप्त मूल्यों को तिलांजलि दे देते हैं.

हमें स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य की मौलिक प्रतियां उनके स्थाई भाव उसके जीवन के लक्ष्य आदि परिवर्तित रहते हैं अतः मनुष्य जाति के मौलिक मूल्य में परिवर्तन आना कदापि अनिवार्य नहीं हो सकता है मौलिक मूल्यों के अनुरूप आचरण करने में असमर्थ व्यक्ति के मूल्यों के संदर्भ में परिवर्तनशील ताज की बातें करते हैं मूल्यों के परिवर्तन की बात कहकर समस्याओं से विमुख होने का प्रयत्न शुतुरमुर्ग नीति से अधिक कुछ नहीं मूल निर्धारित करने वाला व्यक्ति संशय की वृद्धि से मुक्त होकर कैसा भी निर्णय लेने में विलंब नहीं करता है और वह लाइन क्लियर मिलने वाली रेलगाड़ी की तरह अपने जीवन पथ पर अग्रसर होता चला जाता है हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारे जीवन का मूल्य निर्धारण मूल्यों के अनुरूप होना चाहिए व्यक्ति की निर्णय लेने की प्रक्रिया का सरलीकरण करते हैं और ऐसी उर्वरक माता तैयार करते हैं जहां आप सफल हो समृद्ध हो सके.

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