ट्रेडिंग फॉरेक्स के लाभ

सकल मुनाफे की अवधारणा

सकल मुनाफे की अवधारणा

वस्तुसूची के लिए आवश्यकता - Need of Inventory

एक व्यापारी को अपने व्यापार के दिन-प्रतिदिन के संचालन को आगे बढ़ाने के लिए वस्तुसूची की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार व्यापार में विस्तार हो रहा हैं, उसी प्रकार इंवेंट्री प्रबंधन भी जटिल हो गया हैं। व्यवसायी को अपनी दैनिक व्यावसायिक गतिविधियों का संचालन करने के लिए अधिक नकदी की आवश्यकता होती है। इसलिए स्टॉक की स्तर अधिक रखना से नकद के स्तर में कमी आती हैं।

व्यवसाय की विफलता के कई कारणों में, इन्वेंट्री की मात्रा का असंतुलन, एक बड़ा कारण है । व्यवसाय में बड़ी मात्रा में मौजूद इन्वेंट्री, स्वाभाविक रूप से चेतावनी अथवा ख़तरे का सूचक हैं।

इन्वेंट्री की पर्याप्तता, इस बात पर निर्भर करती हैं की संस्था इन्वेंटरी की मात्रा और नगद तरलता के बीच कैसे संतुलन स्थापित करता हैं। यदि संस्था, पहले से ही आवश्यक इन्वेंट्री को स्टॉक कर सकते हैं, तो वह मशीनरी के निष्क्रिय समय और पुरुषों के निष्क्रिय समय की लागत को बचाने में सक्षम हो सकती हैं, जिससे माल बनाने की लागत कम हो सकती हैं और लाभ की संभावना बढ़ सकती हैं। वस्तुसूची की प्रकृति (Nature of Inventory):

1. सुरक्षित भंडार सूची: सुरक्षा सूची आपूर्ति में विफलताओं, मांग में अप्रत्याशित वृद्धि, यानी एक बीमा कवर प्रदान करता है।

2. अत्यधिक वस्तुसूची: कभी-कभी प्रबंधन उन कारणों के लिए अत्यधिक इन्वेंट्री रखने के लिए मजबूर हो सकता है

जो बाहरी हैं और इसके नियंत्रण से परे हैं। ऐसी इन्वेंट्री विलासिताका एहसास बनाये रखती है जिससे माल का दुरपयोग हो सकता है। बैंक को इसे प्रोत्साहित या बढ़ावा नहीं देना चाहिए।

3. सामान्य वस्तुसूची: यह उत्पादन योजना और आपूर्ति के समय और आर्थिक आदेश मात्रा (economic order quantity) स्तर पर आधारित है। इसमें सुरक्षित भंडार का एक उचित कारक भी शामिल है।

4. फ्लैबी वस्तुसूची: इसमें खराब कामकाजी पूंजी प्रबंधन और अक्षम वितरण के कारण तैयार माल, कच्चे माल और भंडार शामिल होता है।

5. लाभार्जन वस्तुसूची: यह कच्चे माल के स्टॉक का प्रतिनिधित्व करता है

और स्टॉक लाभ को साकार करने के लिए तैयार सामानों का प्रतिनिधित्व करता है। इस तरह का भंडार कच्चे माल के साथ-साथ तैयार माल के उन सभी स्टॉक को शामिल करता है जो भंडार मुनाफे को साकार करने के लिए रखे जाते हैं। व्यापार के संचालन की पर्याप्तता के लिए लाभार्जन वस्तुसूची, जरूरी है।

वस्तुसूची संचित करने के उद्देश्य (Purpose of Holding Inventory): वस्तुसूची रखने का निर्णय कुछ बुनियादी उद्देश्यों पर आधारित है। वस्तुसूची संचित करने के उद्देश्य निम्नलिखित है:

1. खोई हुई बिक्री से बचना के लिए: यदि बिक्री के लिए तैयार माल को व्यवसाय में नहीं रखा जाता है, तो

बिक्री के अवसर को चूकने की स्थिति हो सकती है, क्योंकि केवल कुछ ही ग्राहक सामानों की प्रतीक्षा करेंगे, वह भी केवल तब, जब सामान प्रतियोगियों के पास उपलब्ध न हो। दूसरे शब्दों में, ग्राहक की मांग पर आपूर्ति के लिए व्यवसाय को हमेशा भंडार रखना चाहिए।

2. मात्रा छूट के लाभ के लिए कई आपूर्तिकर्ता हैं जो आपूर्ति की कीमतों को कम करते हैं, अगर खरीद थोक में की जाती है। यदि व्यवसाय बड़े ऑर्डर देता है, तो वह नियमित कीमतों पर भी छूट का लाभ उठा सकता है। इन छूटों से बिक्री की लागत कम होगी और सकल लाभ मार्जिन बढ़ेगा।

3. आदेश लागत में कमी: हर बार, जब व्यापार माल के लिए आदेश (order) देता है, तो उसे ऑर्डर पर खर्च उठाना पड़ता है। जिससे आदेश लागत कहा जाता है। प्रत्येक आदेश पर प्रसंस्करण लागत (processing cost) लगती है। जैसे कि प्रपत्रों को भरना और पूरा करना, अनुमोदन प्राप्त करना, आगमन के सामान पर माल का गिना जाना, निरीक्षण करना और स्वीकार करना, आदि शामिल हैं।

4. सट्टा उद्देश्यों के लिए: मुद्रास्फीति की स्थिति में, ऐसा हो सकता है कि स्टॉक का मूल्य उस दर पर बढ़ाता है।

जो स्टॉक रखने की लागत से अधिक है। सट्टा उद्देश्यों के लिए स्टॉक रखने का उद्देश्य,

स्टॉक रखने की लागत के मुकाबले मूल्य वृद्धि की अपेक्षाओं, पर निर्भर करेगा। यह इस बात पर भी निर्भर करेगा की इसकी लागत में ब्याज या पूंजीगत लागत की प्रचुर बाजार दर, भंडारण की लागत, और गिरावट, आदि की लागत शामिल

5. कुशल उत्पादन हासिल करना के लिए हर बार, उत्पादन के लिए श्रमिकों और मशीनों को व्यवसाय द्वारा स्थापित किया जाता है और हर बार श्रमिकों और मशीनों को स्थापित करना के लिए लागत लगाई जाती है। जिससे स्थापना लागत (Set-up cost) भी कहा जाता है। बार-बार मशीन स्थापना में उच्च लागत शामिल हो सकती है, लेकिन लंबे समय तक उत्पादन चलने से लागत कम होगी। व्यवसाय में हमेशा, विशेष समस्याओं को दूर करने के लिए, जैसे बिजली की कमी, परिवहन की बाधाएं, श्रम अशांति इत्यादि को ध्यान में रखते हुए स्टॉक रखना अनिवार्य है।

6. बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए: मांग को पूरा करने के लिए स्टॉक आयोजित करने अति महत्वपूर्ण है। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मांग एक अप्रत्याशित तरीके से बदलती है, वास्तु की मांग में बदलाव, किसी भी व्यवसाय के नियंत्रण में नहीं होता है।

सेहत का कारोबार

सुरेश उपाध्याय कहा जाता है कि ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।’ समाज की इस सबसे अहम जरूरत के प्रति शासकों की उपेक्षापूर्ण दृष्टि और नीति ने वंचित वर्ग को हमेशा भाग्य भरोसे ही रख छोड़ा है। आर्थिक भूमंडलीकरण की नीतियां लागू होने के बाद लोक कल्याण की अवधारणा जैसे-जैसे सिमटती […]

सुरेश उपाध्याय

कहा जाता है कि ‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।’ समाज की इस सबसे अहम जरूरत के प्रति शासकों की उपेक्षापूर्ण दृष्टि और नीति ने वंचित वर्ग को हमेशा भाग्य भरोसे ही रख छोड़ा है। आर्थिक भूमंडलीकरण की नीतियां लागू होने के बाद लोक कल्याण की अवधारणा जैसे-जैसे सिमटती जा रही है, स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण बढ़ता जा रहा है। व्यवसायीकरण और मुनाफे की प्रवृत्ति ने इस क्षेत्र में मानवीय संवेदना और सहानुभूति के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी है।

आज आमजन के लिए स्वास्थ्य सुविधा प्राप्त करना दुष्कर हो गया है। चिकित्सा-शिक्षा और स्वास्थ्य-सेवा के क्षेत्र में एक ओर निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने और दूसरी ओर सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र को हतोत्साहित करने की प्रवृत्तियों ने संकट को और विकराल बना दिया है। ग्रामीण क्षेत्र की पूरी तरह अनदेखी से देश की बड़ी आबादी के लिए तो संकट है ही, डॉक्टरों या निजी अस्पतालों में बेलगाम फीस, अपर्याप्त देखरेख, गैरजरूरी परीक्षण, कॉरपोरेट घरानों और बीमा कंपनियों की मिलीभगत, चिकित्सक और जांच घर के साथ-साथ दवा कंपनियों के गठजोड़, अवैध दवा परीक्षण और मरीज या उसके परिजनों की अज्ञानता ने शोषण का ऐसा चक्र बना दिया है, जिसे तोड़ने के लिए प्रभावी पहल की जरूरत है।

आजादी के इतने वर्षों के बाद भी अधिकतर राज्यों की अपनी कोई स्वास्थ्य नीति नहीं होना शासक वर्ग की इस क्षेत्र के प्रति लापरवाही और गैरजिम्मेदारी का सबूत है। जन-स्वास्थ्य के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करते हुए राज्य सरकारों को इस क्षेत्र में अविलंब कारगार उपाय करने चाहिए और सबसे पहले हरेक राज्य को सकल मुनाफे की अवधारणा अपनी परिस्थितियों और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए स्वास्थ्य नीति की घोषणा करनी चाहिए।

इन नीतियों के मूल में स्वास्थ्य सेवाओं को सरकार की जिम्मेदारी बनाने के अलावा व्यावसायिक लूट, पेशेवर मुनाफाखोरी पर प्रभावी नियमन और नियंत्रण होना चाहिए। प्राथमिक स्वास्थ्य जरूरतों पर ध्यान नहीं दिए जाने से छोटी-छोटी स्वास्थ्य समस्याओं के लिए ‘विशेषज्ञों’ पर निर्भरता बढ़ रही है, जिनकी पहले से ही कमी है। काम का दबाव कम करने के लिए विशेषज्ञ चिकित्सकों ने फीस वृद्धि और सरकार की ओर से नियुक्ति वाली जगह पर ड्यूटी नहीं करने का रास्ता अपनाया हुआ है। इससे गरीब और वंचित वर्ग की मुसीबतें और बढ़ गई हैं और वे नीम-हकीमों पर ही निर्भर रहने को मजबूर हैं। इसके निदान के लिए ग्रामीण और झुग्गी या गरीब बस्ती वाले क्षेत्रों में खासतौर पर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केंद्र के विस्तार और उनके ठीक से काम को सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।

स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सकल घरेलू उत्पाद का मात्र 1.04 फीसद खर्च किया जाता है। यानी स्वास्थ्य के लिए नगण्य व्यय सरकार की अपनी जिम्मेदारी के प्रति औपचारिकता निर्वाह का प्रतीक भर है। इसमें वृद्धि के बजाय पिछले बजट में इस मद में भारी कमी कर दी गई। देश में जीवनरक्षक दवाइयों का मूल्य निर्धारण ड्रग प्राइस कंट्रोल आर्डर के माध्यम से एनपीपीए यानी नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग ऑथोरिटी करती है। एनपीपीए ने कैंसर, मधुमेह, हृदय और अन्य आवश्यक दवाइयों का मूल्य निर्धारण भी कर दिया था।

इन दवाइयों पर कंपनियां अत्यधिक लाभ अर्जित कर जनता को लूट रही थीं। एनपीपीए के इस कदम के विरुद्ध सभी कंपनियां न्यायालय में जाने की तैयारी में थीं, तभी भारत सरकार ने ड्रग प्राइस कंट्रोल आर्डर, 2013 के अनुच्छेद उन्नीस को हटा दिया, जिससे एनपीपीए को हासिल अधिकार अपने आप समाप्त हो गए। मजबूरी में एनपीपीए को अधिसूचना जारी कर उन एक सौ आठ अतिआवश्यक दवाइयों को मूल्य निर्धारण से छूट देने की घोषणा करनी पड़ी और इन दवाओं को महंगे दामों पर बेचने का रास्ता खोल दिया गया। इस पृष्ठभूमि में स्वास्थ्य नीति, 2015 के मसविदे को समझें तो यह इस क्षेत्र में लूट को रोकने और निजी या कॉरपोरेट व्यवसायतंत्र के शिकंजे से आमजन को मुक्त करने की कोई आस्था नहीं जगाती है।

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Hydrocarbon Exploration and Licensing Policy (HELP)

The Union Cabinet, chaired by the Prime Minister Shri Narendra Modi, has approved the Hydrocarbon Exploration and Licensing Policy (HELP).

Four main facets of this policy are:

i. uniform license for exploration and production of all forms of hydrocarbon,

ii. an open acreage policy,

iii. easy to administer revenue sharing model and

iv. marketing and pricing freedom for the crude oil and natural gas produced.

The decision will enhance domestic oil & gas production, bring substantial investment in the sector andgenerate sizable employment. The policy is also aimed at enhancing transparency and reducing administrative discretion.

The uniform licence will enable the contractor to explore conventional as well as unconventional oil and gas resources including CBM, shale gas/oil, tight gas and gas hydrates under a single license. The concept ofOpen Acreage Policy सकल मुनाफे की अवधारणा will enable E&P companies choose the blocks from the designated area.

Present fiscal system of production sharing based on Investment Multiple and cost recovery /production linked payment will be replaced by a easy to administer revenue sharing model. The earlier contracts were based on the concept of profit sharing where profits are shared between Government and the contractor after recovery of cost. Under the profit sharing methodology, it became necessary for the Government to scrutinize cost details of private participants and this led to many delays and disputes. Under the new regime, the Government will not be concerned with the cost incurred and will receive a share of the gross revenue from the sale of oil, gas etc. This is in tune with Government’s policy of “Ease of Doing Business”.

Recognising the higher risks and costs involved in exploration and production from offshore areas, lower royalty rates for such areas have been provided as compared to NELP royalty rates to encourage exploration and production. A graded system of royalty rates have been introduced, in which royalty rates decreases from shallow water to deepwater and ultra-deep water. At the same time, royalty rate for onland areas have been kept intact so that revenues to the state governments are not affected. On the lines of NELP, cess and import duty will not be applicable on blocks awarded under the new policy. This policy also provides for marketing freedom for crude oil and natural gas produced from these blocks. This is in tune with Government’s policy of “Minimum Government –Maximum Governance

इस नीति की मुख्‍य बातें निम्‍नलिखित हैं:

i. हाइड्रोकार्बन के सभी स्‍वरूपों के उत्‍खनन एवं उत्‍पादन के लिए एकसमान लाइसेंस

iii. राजस्‍व भागीदारी वाले मॉडल के संचालन में आसानी

iv. उत्‍पादित कच्‍चे तेल और प्राकृतिक गैस के लिए विपणन व मूल्‍य निर्धारण संबंधी आजादी उपर्युक्‍त निर्णय से तेल एवं गैस का घरेलू उत्‍पादन बढ़ेगा, इस क्षेत्र में व्‍यापक निवेश आएगा और बड़ी संख्‍या में रोजगार अवसर सृजित होंगे। इस नीति का उद्देश्‍य पारदर्शिता बढ़ाना और प्रशासकीय विवेकाधिकार में कमी लाना भी है।

एकसमान लाइसेंस से ठेकेदार के लिए एकल लाइसेंस के तहत परंपरागत के साथ-साथ गैर परंपरागत तेल एवं गैस संसाधनों का भी उत्‍खनन करना संभव हो जाएगा, जिनमें सीबीएम, शेल गैस/तेल, टाइट गैस और गैस हाइड्रेट्स भी शामिल हैं। खुली रकबा नीति की अवधारणा से ईएंडपी कंपनियों के लिए नामित क्षेत्र से ब्‍लॉकों का चयन करना संभव हो जाएगा।

निवेश गुणज और लागत वसूली/उत्‍पादन संबंधी भुगतान पर आधारित उत्‍पादन हिस्‍सेदारी वाली मौजूदा राजकोषीय प्रणाली का स्‍थान राजस्‍व हिस्‍सेदारी वाला ऐसा मॉडल लेगा, जिसका संचालन करना आसान होगा। पूर्ववर्ती अनुबंध मुनाफे में हिस्‍सेदारी वाली अवधारणा पर आधारित थे, जिसके तहत लागत की वसूली के बाद सरकार और ठेकेदार के बीच मुनाफे की हिस्‍सेदारी तय की जाती है। मुनाफा हिस्‍सेदारी वाली विधि के तहत सरकार के लिए निजी सहभागियों के लागत संबंधी ब्‍यौरे की जांच करना आवश्‍यक हो गया था, जिससे काफी देरी होने लगी और अनेक विवाद भी उभर कर सामने आए। नई व्‍यवस्‍था के तहत सरकार का इससे कोई वास्‍ता नहीं रहेगा कि कितनी लागत आई है। इतना ही नहीं, सरकार को तेल, गैस इत्‍यादि की बिक्री से प्राप्‍त सकल राजस्‍व का एक हिस्‍सा प्राप्‍त होगा। यह ‘कारोबार में सुगमता लाने’ की सरकारी नीति के अनुरूप है।

अपतटीय क्षेत्रों में उत्‍खनन एवं उत्‍पादन में निहित बेहद जोखिम और लागत को ध्‍यान में रखते हुए एनईएलपी से जुड़ी रॉयल्‍टी दरों की तुलना में इन क्षेत्रों के लिए अपेक्षाकृत कम रॉयल्‍टी दरें तय की गई हैं, ताकि उत्‍खनन एवं उत्‍पादन को बढ़ावा दिया जा सके। रॉयल्‍टी दरों की एक वर्गीकृत प्रणाली शुरू की गई है, जिसके तहत रॉयल्‍टी दरें उथले पानी में उत्‍खनन के लिए ज्‍यादा तय की गई हैं, जबकि गहरे पानी एवं अत्‍यंत गहरे पानी में उत्‍खनन के लिए अपेक्षकृत कम तय की गई हैं। इसके साथ ही अंदरूनी (ऑनलैंड) क्षेत्रों के लिए रॉयल्‍टी दर को अपरिवर्तित रखा गया है, ताकि राज्‍य सरकारों को मिलने वाला राजस्‍व प्रभावित न हो। एनईएलपी की तर्ज पर ही नई नीति के तहत भी अनुबंध पर दिए जाने वाले ब्लॉकों पर उपकर और आयात शुल्‍क नहीं लगाए जाएंगे। इन ब्‍लॉकों में उत्‍पादित होने वाले कच्‍चे तेल और प्राकृतिक गैस के लिए विपणन संबंधी आजादी भी इस नीति में दी गई है। यह ‘न्‍यूनतम सरकार- अधिकतम शासन’ से जुड़ी सरकारी नीति के ही अनुरूप है।

ऐसे समझें रिकार्डो, कलदर और कलेकी के वैकल्पिक वितरण के सिद्धांत को

Alternative Distribution Theories Ricardo, Kaldor, Kalecki

किसी भी देश के विकास में अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा योगदान होता है। अर्थव्यवस्था का अध्ययन अर्थशास्त्र में होता है। दुनियाभर में ढेरों अर्थशास्त्री हुए हैं, जिन्होंने समय-समय पर कई सिद्धांत देकर अर्थशास्त्र को समझने में मदद की है। यहां हम आपको डेविड रिकार्डो, निकोलस कलदर और माइकल कलेकी के वैकल्पिक वितरण सिद्धांतों के बारे में बता रहे हैं।

डेविड रिकार्डो के वितरण का सिद्धांत

  • David Ricardo के model का महत्व यह है कि यह अर्थशास्त्र में उपयोग किए जाने वाले पहले मॉडलों में से एक था, जिसका उद्देश्य यह बताना था कि समाज में आय कैसे वितरित की जाती है।
  • आरंभिक धारण थी कि केवल एक ही उद्योग और वो कृषि। केवल एक ही सामान है और वो है अनाज।
  • लोग तीन तरह के माने जाते हैं। पूंजीपतिरू वे बचत और निवेश करके आर्थिक विकास की प्रक्रिया शुरू करते हैं। बदले में, वे लाभ (P) प्राप्त करते हैं, जो कि एक बार छोड़ दिया जाता है मजदूरी और किराए को सकल राजस्व से घटा दिया गया है। पूंजी को निश्चित पूंजी (उदाहरण के लिए मशीनों) और कार्यशील पूंजी (मजदूरी निधि, WF) में विभाजित किया जा सकता है।
  • दूसरे हैं श्रमिक, जो मजदूरी (W) के बदले में श्रम बल का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • तीसरे हैं जमींदार, जो वे किराए (R) के बदले उत्पादन (Y) अपनी भूमि में करने की अनुमति देते हैं।
  • कम आय का नियम श्रम (उत्पादन का अनिश्चित कारक) और भूमि (निश्चित कारक) को प्रभावित करता है।
  • मार्जिन के सिद्धांत के मुताबिक श्रम का सीमांत उत्पाद भूमि के औसत उत्पाद के साथ घट रहा है।
  • आर्थिक अधिशेष के सिद्धांत के अनुसार लाभ उत्पादन के अधिशेष के रूप में निर्धारित किया जाता है।
  • दी गई प्रारंभिक स्थिति में उत्पादन y0 स्तर पर है, जिसे हम मजदूरी (w0) और मुनाफे (P0) में विभाजित कर सकते हैं। मकान मालिकों को दिया गया किराया R0 से मेल खाता है। W0 और श्रम के स्तर (L0) से हम प्रारंभिक स्थिति (WF0) पर मजदूरी निधि का निर्धारण करते हैं।
  • वास्तविक मजदूरी निर्वाह स्तर पर स्थिर हो जाएगी। पूंजी की ब्याज दर 0 पर रहेगी और किराए अपने अधिकतम स्तर पर पहुंच जाएंगे।
  • रिकार्डो बताते हैं कि यह स्थिर स्थिति सकल मुनाफे की अवधारणा दर्दनाक कैसे है, विशेष रूप से श्रमिक वर्ग के लिए। हालाँकि, इस स्थिर स्थिति में भी तकनीकी प्रगति या अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की वजह से विलंब हो सकता है।

Nicholas Kaldor का सिद्धांत

  • आय का एक निरंतर अनुपात बचाया जाना (St/Yt) माना जाता है। पूर्ण क्षमता की स्थिति का अर्थ है एक निरंतर पूंजी उत्पादन अनुपात (C/O) और इसके आगे की शर्त है कि पूर्ण रोजगार पर श्रम की मांग (पूर्ण क्षमता उत्पादन के साथ) निरंतर दर (n) पर बढ़नी चाहिए।
  • इस प्रकार, निरंतर बचत-आय अनुपात, निरंतर पूंजी-उत्पादन अनुपात और पूर्ण रोजगार पर श्रम की निरंतर मांग के कारण, H-D मॉडल बहुत अधिक कठोर हो जाता है।
  • हालांकि, H-D मॉडल बहुत उपयोगी हो जाता है यदि ये स्थितियां शिथिल हों। पैरामीटर अलग होने की अनुमति दी जा सकती है। हम श्रम की आपूर्ति को अलग कर सकते हैं और इसे पूर्ण रोजगार पर अधिक लचीला मान सकते हैं।
  • कलदर का शुरुआती बिंदु दरअसल यह विश्वास है कि समाज की आय को विभिन्न वर्गों के बीच वितरित किया जाता है, जिनमें से प्रत्येक को बचाने के लिए (K=W+P) अपनी स्वयं की प्रवृत्ति होती है।
  • आय का न्यायसंगत और उचित वितरण करके ही संतुलन लाया जा सकता है।
  • दूसरे शब्दों में विकास दर और आय वितरण स्वाभाविक रूप से जुड़े हुए तत्व हैं।
  • कलदर का मॉडल इन दो तत्वों और उनके संबंधों पर निर्भर करता है और विकास की प्रक्रिया में आय के वितरण के महत्व को सामने लाता है। यह कलदर के मॉडल की बुनियादी खूबियों में से एक है।
  • उनके मॉडल में एक तरफ आय के वितरण के संबंध दिए गए बचत (या सामाजिक बचत) के स्तर और निवेश व आर्थिक विकास की दर को निर्धारित करते हैं। वहीं दूसरी ओर, इसकी या निश्चित विकास दर की उपलब्धि के लिए सकल मुनाफे की अवधारणा निवेश के एक निश्चित स्तर की आवश्यकता होती है। साथ ही बचत और आय के एक समान वितरण की भी जरूरत होती है।

कलेकी के वितरण का सिद्धांत

  • इनके मुताबिक आय को उन वर्गों के बीच विभाजित किया जाता है जो अपनी ही पीढ़ी में शामिल हैं। इस अर्थ में देखा जाए तो आय वितरण का अभिप्राय वर्ग के शेयरों से है।
  • भुगतान की इकाई दरों के रूप में वर्गों के शेयरों का भुगतान किया जाता है और वर्ग के सदस्य इसे प्राप्त करते हैं। जहां कुछ वर्गों के लिए ये भुगतान लाभ की दर तो वहीं कुछ के लिए मजदूरी की दर होते हैं।
  • कलेकी के सिद्धांत का संबंध वर्ग के शेयरों व भुगतान की दरों और विशेष रूप से लाभ की दर दोनों को समझाने से रहा है।
  • कलेकी ने अपूर्ण बाजारों में मूल्य निर्धारण की सुविधाओं के वितरण के आधार पर अपने सिद्धांत को विकसित किया है।
  • इन बाजारों में कीमतें आमतौर पर फर्मों द्वारा चयनित मार्क-अप के आधार पर तय की जाती हैं। मार्क-अप दरअसल फर्मों द्वारा किए गए प्रतिशत जोड़ को कहते हैं, जो कि उनकी प्रमुख लागत से ऊपर सकल लाभ मार्जिन को सुरक्षित करने के लिए किए जाते हैं। इस प्रकार मार्क-अप लाभ को दुरुस्त करने का काम करते हैं।
  • जो ऊर्ध्वाधर रूप से एकीकृत उद्योगों होते हैं, उनमें कच्चे माल गायब हो जाते हैं और फिर मजदूरी ही एकमात्र प्रमुख लागत बचती है। इस मामले में, मार्क-अप अकेले वितरण का निर्धारण करते हैं।
  • आम तौर पर, केवल मजदूरी ही नहीं, बल्कि कच्चे माल भी प्रमुख लागत माने जाते हैं। मार्क-अप केवल लाभ-प्रधान लागत अनुपात को ठीक करता है। मार्क-अप से वितरण का निर्धारण करने के लिए हमें आगे प्रधान लागतों में मजदूरी का हिस्सा जानने की जरूरत पड़ती है। इसे मापने के लिए कलेकी ने एक दूसरा अनुपात पेश किया है- कच्चा माल और मजदूरी लागत (R-W) अनुपात।
  • वर्ष 1939 में जब कलेकी ने वितरण के साथ मार्क-अप को जोड़ा, तो मांग की लोच के संदर्भ में मार्क-अप की व्याख्या करना बेहद आम था। चूंकि फर्म की मांग की लोच अपनी बाजार शक्ति के साथ जुड़ी हुई है, इसलिए मार्क-अप्स ने फर्म की एकाधिकार शक्ति की डिग्री को दर्शाया है।
  • कलेकी ने जल्द ही मार्क-अप और डिमांड लोच के बीच की कड़ी को छोड़ दिया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उन्होंने महसूस किया कि फर्मों ने अपने उत्पादों के मूल्य निर्धारण में मांग की लोच की अनुसूची का उल्लेख नहीं किया है। इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत मांग की अवधारणा ने उद्योग में कीमतों की अन्योन्याश्रयता की अनदेखी भी की।

निष्कर्ष

रिकार्डो, कलदर और कलेकी तीनों ही जाने-माने अर्थशास्त्री रहे हैं। इन तीनों का जो वैकल्पिक वितरण का सिद्धांत हैं, उनमें काफी असमानताएं हैं। श्रम, बल, पूंजी, बचत, विकास दर आदि को लेकर तीनों ही अर्थशास्त्रियों ने अपने-अपने तरीके से अपने मॉडलों के जरिये इनके बारे में समझाने का प्रयास किया है। इन तीनों ही अर्थशास्त्रियों के सिद्धांतों को अर्थव्यवस्था में नीति निर्धारण के दौरान भी आवश्यकतानुसार अपनाया जाता रहा है। इन सिद्धांतों के बारे में यहां पढ़ने के बाद अब क्या आप उदाहरण सहित बता सकते हैं कि आपने अब तक इनका उपयोग किन-किन चीजों में होते हुए देखा है?

सकल लाभ: सूत्र और मूल्य

किसी भी उद्यम के संचालन का उद्देश्य,इसके आकार या गतिविधि के क्षेत्र के बावजूद, लाभ की प्राप्ति है इस सूचक को संगठन की प्रभावशीलता के विश्लेषण के लिए सबसे महत्वपूर्ण में से एक कहा जा सकता है। इससे हमें यह निर्धारित करने की अनुमति मिलती है कि तर्कसंगत तरीके से उत्पादन और अन्य संसाधनों के साधनों का प्रयोग किया जाता है- श्रम, पैसा, और सामग्री। सामान्य तौर पर, मुनाफे को लागत से अधिक राजस्व के रूप में देखा जा सकता है और उत्पादन के लिए उपयोग किए जाने वाले इनपुट। हालांकि, वित्तीय विश्लेषण की प्रक्रिया में, इसके विभिन्न प्रकारों की गणना की जाती है। तो, शुद्ध लाभ के साथ सकल अनुमानित है। यह गणना करने के लिए सूत्र, साथ ही साथ मूल्य, अन्य प्रकार की आय से अलग हैं साथ ही, उद्यम की दक्षता का आकलन करने में यह सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

लाभ सकल सूत्र

सकल लाभ की अवधारणा

शब्द अंग्रेजी सकल लाभ से आता है औरएक निश्चित अवधि के लिए संगठन का कुल लाभ का मतलब है। यह बिक्री और विनिर्मित वस्तुओं की लागत से राजस्व के बीच अंतर के रूप में परिभाषित किया गया है। कुछ इसे सकल आय के साथ भ्रमित करते हैं सबसे पहले माल की बिक्री से प्राप्त आय और उनके उत्पादन के साथ जुड़े लागत के बीच अंतर के रूप में गठन किया था। दूसरे शब्दों में, यह शुद्ध आय और कर्मचारियों के वेतन का योग है। सकल लाभ उद्यमों, जिनमें से फ़ॉर्मूला नीचे चर्चा की जाएगी, एक छोटे मूल्य। यह कर (आयकर के अलावा), और श्रम लागत की कटौती के बाद ही बना है। यही कारण है कि खाते में न केवल भौतिक लिया जाता है, लेकिन सभी की कुल लागत उत्पादन के साथ जुड़े।

फॉर्मूला: सकल लाभ

यह मान का परिणाम हैसभी प्रकार के उत्पादों और सेवाओं की बिक्री, और गैर-ऑपरेटिंग लेनदेन से राजस्व भी शामिल है यह एक पूरे के रूप में उत्पादन की दक्षता को दर्शाता है। देखते हैं कि सकल लाभ की गणना कैसे की जाती है। सूत्र में निम्न रूप हैं:

बिक्री (शुद्ध) से आय बेची गई वस्तुओं / सेवाओं की लागत मूल्य है

यहां स्पष्टीकरण देना आवश्यक है शुद्ध आय की गणना निम्नानुसार है:

बिक्री से कुल राजस्व - छूट की राशि - लौटा वस्तुओं का मूल्य

सामान्य तौर पर, हम यह कह सकते हैं कि इस तरह के लाभ में अप्रत्यक्ष लागतों को ध्यान में रखते हुए लेन-देन की आय को दर्शाता है।

सकल लाभ सूत्र

सकल और शुद्ध लाभ

सकल लाभ केवल प्रत्यक्ष लागत को ध्यान में रखता है. वे उद्योग के आधार पर निर्धारित किए जाते हैंजो कंपनी संचालित करती है इसलिए, निर्माता के लिए, उपकरण के संचालन को प्रदान करने वाली विद्युत शक्ति एक प्रत्यक्ष व्यय होगी, और परिसर की रोशनी चालान की जाएगी। जब शुद्ध लाभ निर्धारित होता है, अप्रत्यक्ष लागत को ध्यान में रखा जाता है। इसकी गणना के लिए, सकल लाभ का इस्तेमाल किया जा सकता है। फार्मूले के रूप में है:

सकल लाभ - प्रबंधन, वाणिज्यिक खर्च - अन्य लागत - करों

इन सभी भुगतानों के भुगतान के बाद प्राप्त आय शुद्ध है और उद्यम की विभिन्न आवश्यकताओं - सामाजिक, उत्पादन के विकास से जुड़े आदि के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

उद्यम फार्मूले का सकल लाभ

निष्कर्ष

उत्पादन दक्षता का सबसे महत्वपूर्ण सूचकउद्यम सकल लाभ है इसकी गणना के लिए फार्मूला लेख में दिया गया है और माल या सेवाओं की बिक्री से प्राप्त कुल राजस्व को दर्शाता है। यह निर्धारित किया जाता है कि संगठन की प्रत्यक्ष लागत को ध्यान में रखते हुए और अप्रत्यक्ष लागतों को शामिल नहीं करता है इस प्रकार, इस प्रकार के लाभ में उद्यमों के मुख्य व्यवसाय में सीधे शामिल संसाधनों का उपयोग करने की दक्षता दिखाई देती है।

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